Gyani Pandit Ji - आस्तिक नास्तिक और परमात्मा
पश्चिम में एक नास्तिक विचारक हुआ, दिदरो। उसने एक सभा में एक दिन अपनी घड़ी ऊंची उठा कर कहा कि अगर परमात्मा कहीं है, तो एक छोटा सा प्रमाण दे दे, तो मैं मान लूं। यह मेरी घड़ी चलती है, इसी वक्त बंद हो जाए। इतना भी परमात्मा कर दे! क्योंकि तुम कहते हो कि उसने जगत को बनाया, और तुम कहते हो वही निर्माता और वही विनाशक,वही बनाने वाला, वही मिटाने वाला। इतना छोटा सा काम कर दे, यह घड़ी आदमी की बनाई हुई है, इसे वह बंद कर दे इसी वक्त, तो मैं सदा के लिए उसके चरणों में गिर जाऊं।
जो आस्तिक थे उस सभा में, उन्होंने आकाश की तरफ प्रार्थना-भरी आंखों से देखा कि बंद कर दे! इतना सा छोटा सा काम है, यह घड़ी बंद कर दे! तेरे हाथ में क्या नहीं! तेरी कृपा हो जाए, तो लंगड़े पहाड़ चढ़ जाते हैं, अंधे देखने लगते हैं, मुर्दे जीवित हो जाते हैं। तेरे हाथ में क्या नहीं है?इतनी सी बात कि यह छोटी सी घड़ी, इसे बंद कर दे!
लेकिन घड़ी बंद नहीं हुई। और दिदरो उन आस्तिकों से जीत गया। इसलिए नहीं कि दिदरो की नास्तिकता सही थी,इसलिए कि उन आस्तिकों की आस्तिकता ही सही नहीं थी। वे परमात्मा से यह कह रहे थे कि तू दिदरो के साथ प्रतिस्पर्धा में उतर जा। वे परमात्मा से यह कह रहे थे कि यह दावे का मौका है, क्यों छोड़ता है! दावेदार हो जा! इतनी सी छोटी सी बात,करके दिखा दे।
लेकिन अगर दिदरो सच में बुद्धिमान होता या वे आस्तिक बुद्धिमान होते, तो वे समझ पाते। मुझे तो लगता है कि अगर परमात्मा जोश में आ जाता उस दिन, तो सदा के लिए, सदा के लिए अप्रमाणित हो जाता। उस दिन अगर दिदरो की बातों में आ जाता और घड़ी बंद कर देता, तो परमात्मा एकदम क्षुद्र हो जाता। असल में, दावा क्षुद्रता से आता है। दिदरो को भी न सह सके परमात्मा, तो बहुत छोटा हो जाता है। इस चुनौती को भी न सह सके, तो बहुत छोटा हो जाता है। कहीं कुछ भी न हुआ, घड़ी चलती रही, और दिदरो जीत गया। और दिदरो जीवन भर यही सोचता रहा कि जो परमात्मा इतना सा प्रमाण नहीं दे सकता, उसका होना कैसे हो सकता है! क्योंकि हम मानते हैं कि प्रमाण ही होने का सबूत है।
लेकिन वस्तुतः जो चीज है, वह कभी प्रमाण नहीं देती। प्रमाण हम जुटाते ही इसीलिए हैं कि संदेह होता है! अन्यथा हम प्रमाण नहीं जुटाते। इसलिए इस जगत में जो परम आस्तिक हुए हैं, उन्होंने ईश्वर के लिए प्रमाण नहीं दिए। और जिन्होंने दिए हैं, वे आस्तिक नहीं थे। जिन्होंने प्रमाण दिए हैं और जिन्होंने कहा है कि इसलिए परमात्मा है, इसलिए परमात्मा है, इसलिए परमात्मा है, जिन्होंने परमात्मा के होने को तर्क की निष्पत्ति, एक सिलोजिज्म बनाया और जिन्होंने कहा जैसे गणित सिद्ध होता है, ऐसे परमात्मा भी सिद्ध होता है, उनमें से कोई भी आस्तिक नहीं था। वे सभी नास्तिक थे,जो किसी तरह प्रमाण जुटा कर अपने को समझाने की कोशिश कर रहे थे कि परमात्मा है। लेकिन अगर उनके प्रमाण गलत हो जाएं, तो उनका परमात्मा भी गलत हो जाता है। जो परमात्मा प्रमाणों पर निर्भर है, ध्यान रहे, प्रमाण उस परमात्मा से बड़े हो जाते हैं।
तरतूलियन ने कहा है कि मैं भरोसा करता हूं तुम में,क्योंकि तुमने कभी प्रमाण नहीं दिए। यह आदमी आस्तिक रहा होगा। तरतूलियन ने कहा है कि मैं विश्वास करता हूं तुम में,क्योंकि तुम बिलकुल असंभव मालूम पड़ते हो। सब तरह से सोचता हूं, पाता हूं कि तुम नहीं हो सकते, इसीलिए भरोसा करता हूं कि तुम हो। क्योंकि अगर मेरे प्रमाणों से तुम हो सको,तो मैं तुमसे बड़ा हो जाता हूं। अगर मेरे प्रमाण से परमात्मा सिद्ध हो जाए, तो मेरे ही प्रमाण से असिद्ध भी हो जाएगा। अगर मेरी बुद्धि निर्णय कर सके कि परमात्मा है, तो फिर मेरी बुद्धि निर्णायक हो जाती है। वह यह भी निर्णय कर सकेगी कि परमात्मा नहीं है। मेरी बुद्धि बड़ी हो जाती है।
लाओत्से कहता है कि वह निर्माता, स्रष्टा, पोषक;लेकिन दावेदार नहीं है। उसने कभी घोषणा नहीं की कि मैं मालिक हूं।
असल में, वह इतना निश्चिंत रूप से मालिक है, इतना आश्वस्त रूप से मालिक है कि घोषणा की जरूरत नहीं पड़ी। आपको मालकियत की घोषणा करनी पड़ती है, क्योंकि आप आश्वस्त नहीं हैं। रोज-रोज घोषणा करते हैं, तो अपने लिए आश्वासन जुटा लेते हैं। कभी आपने खयाल किया कि जिस चीज के संबंध में आप आश्वस्त होते हैं, उस संबंध में आप घोषणा नहीं करते।
रामकृष्ण के पास विवेकानंद गए और विवेकानंद ने उनका हाथ पकड़ कर हिलाया और कहा कि मैं जानना चाहता हूं, ईश्वर है? विवेकानंद और लोगों से भी पूछ चुके थे यह। तर्क देने वाले, विचारशील लोग मिले थे, जिन्होंने तर्क दिए; जिन्होंने कहा, है! मैं सिद्ध करके बता सकता हूं। ज्ञानी मिले, जिन्होंने शास्त्र खोले और विवेकानंद को कहा कि देखो, यह लिखा है कि है। लेकिन विवेकानंद को आश्वासन नहीं मिला। क्योंकि जिसका परमात्मा शास्त्र में छिपा हो, उसे असली परमात्मा का कोई भी पता नहीं है। और जिसका परमात्मा तर्क में छिपा हो,उसका परमात्मा कभी भी खंडित किया जा सकता है। क्योंकि तर्क दुधारी तलवार है। जिसका सहारा तर्क पर हो, तर्क खींचते ही वह बेसहारा होकर जमीन पर गिर जाएगा।
विवेकानंद ने रामकृष्ण से भी पूछा है कि क्या ईश्वर है?
रामकृष्ण ने कहा, बेकार की बातें मत पूछो; यह पूछो कि तुम्हें देखना है, जानना है, उससे मिलना है।
यह पहला मौका था कि कोई आश्वस्त आदमी सामने था। उसने यह नहीं कहा कि है, मैं सिद्ध कर दूंगा। मैं तुम्हें बताऊंगा कि है, समझाऊंगा कि है। उसने कहा कि तुम्हें मिलना हो, तो बोलो, हां या न में जवाब दो।
विवेकानंद ने बाद में कहा है कि मैंने प्रश्न पूछ कर दूसरों को झिझक में डाल दिया था। रामकृष्ण ने मुझे ही झिझक में डाल दिया। क्योंकि मैंने अभी खुद भी तय नहीं किया था कि मैं उससे मिलने को राजी हूं या नहीं हूं! मैं तो एक कुतूहलवश पूछने चला आया था। पर विवेकानंद ने कहा कि एक बात तय हो गई कि यह आदमी तर्क से नहीं जानता है,किन्हीं प्रमाणों से नहीं जानता है, बस जानता है; निपट, शुद्ध जानता है। किसी कारण से नहीं, बस जानता है। और जानने में इतना आश्वस्त है कि दूसरे से भी कहता है कि तुम्हें जानना हो, तो बोलो। यह बात इतनी आसान मालूम पड़ रही है इस आदमी को जैसे कोई कहे कि क्या बात करते हो सूरज है या नहीं! मेरा हाथ पकड़ो और चलो, बाहर निकल आओ घर के और सूरज को देख लो। इसकी चर्चा करनी ही फिजूल है कि सूरज है या नहीं; आओ, बाहर आओ और देख लो। इतनी सरलता से जो कह रहा है। पर इस कहने में एक गहन आश्वासन है।
जहां आश्वासन है, वहां दावा नहीं है। जहां आश्वासन नहीं है, वहां दावा है। और अगर परमात्मा भी आश्वस्त न हो,तो कौन आश्वस्त होगा? इसलिए परमात्मा ने अब तक कोई दावा नहीं किया।
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