Gyani Pandit Ji - हम किसी कार्य का प्रारंभ करते हैं तो,

कुछ पाना है इसलिए करते हैं।
कोई महत्वाकांक्षा है, उसे पूरा करना है इसलिए करते हैं।

उसे कुछ भी पाना नहीं है, कुछ भी होना नहीं है।
जो होना था हो चुका।
जो पाना था पा लिया।
फिर भी कर्म तो होते हैं।
तो इन कर्मों में कोई प्रारंभ की वासना नहीं है।
कोई आरंभ नहीं है।
प्रभु जो करवाता वह होता।
शानी अपने तईं कुछ भी नहीं कर रहा है।
प्रभु बुलाए तो बोलता। प्रभु मौन रखे तो मौन रहता।
प्रभु चलाए तो चलता।
प्रभु न चलाए तो रुक रहता।
जिस दिन अहंकार गया उसी दिन कर्मों को प्रारंभ करने की जो आकांक्षा थी वह भी गई।
अब कर्मों का प्रारंभ परमात्मा से होता और कर्मों का अंत भी उसी को समर्पित है।
ज्ञानी में कर्म प्रकट होता है लेकिन शुरू नहीं होता; शुरू परमात्मा में होता है।
लहर परमात्मा से उठती है, ज्ञानी से प्रकट होती है।
इसे समझना।
होता तो ऐसा ही अज्ञानी में भी है, लेकिन अज्ञानी सोचता है लहर भी मुझसे उठी।
अज्ञानी अपने कर्मों का स्रोत स्वयं को मान लेता।
वहीं बंधन पैदा होता है।
कर्मों में बंधन नहीं है, कर्मों का स्रोत स्वयं को मान लेने में बंधन है।
तुमने कभी कोई कर्म किया है?
तुम कभी कोई कर्म कर कैसे सकोगे?
न जन्म तुम्हारा न मृत्यु तुम्हारी; तो जीवन तुम्हारा कैसे हो सकता है?

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